पर्यावरण एवं विज्ञान >> स्वर्ग दद्दा ! पाणि, पाणि स्वर्ग दद्दा ! पाणि, पाणिविद्यासागर नौटियाल
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पर्यावरण की चिन्ता को लेकर बना नौटियाल जी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘स्वर्ग दद्दा ! पाणि, पाणि’
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
जल, जंगल और जमीन से जुड़ी चिन्ताओं तो वृहत आयाम देता वरिष्ठ उपन्यासकार विद्यासागर नौटियाल का ‘स्वर्ग दद्दा ! पाणि, पाणि’ जन-आन्दोलन की जरूरतों को रेखांकित करने वाला एक यादगार उपन्यास है। यह उपन्यास उस प्रयास का प्रतिरोध है जहाँ आज मेहनतकश-श्रमशील वर्ग से उसकी हक़ ही नहीं छीना जा रहा है बल्कि उसके इतिहास को भी विस्मृत किया जा रहा है। नौटियाल जी ने दिखाया है कि पहाड़-जंगल-जमीन से जुड़े लोग उसके कण कण से जिस तरह प्रेम करते हैं, उसके ठीक उलट सत्ता और शासन से सटे लोग बाजार की शक्ति से संचालित होकर उसके हरेक कण से अधिकाधिक मुनाफा घसोटना चाहते हैं। लोभ-लाभ के इस खोल में लिप्त सत्ता और बाजार के दलाल भूखे भेड़िये से भी ज्यादा हिंसक और खतरनाक हैं। यह दलाल वर्ग सदाबहार देवदार और उसके छोटे छोटे जलस्रोत ही नष्ट नहीं करता, संपूर्ण गंगा उद्गम पर ही पीकर नदियों में सिर्फ़ ज़हर प्रवाहित करना चाहता है।
इस उपन्यास का आरम्भ सितानू की मार्मिक संघर्ष-कथा से होता है। सितानू एक दलित मेहनतकश था जिसने व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर कठिन श्रम से जल का सोता निकाला। फटक पिठवाण से लाया पत्थर राशकर गाय के मुख के भीतर से गिरता पानी सबको सुलभ करवाया। लेकिन, कालांतर में दलितों के लिए ही वहाँ से पानी लेना मुश्किल हो गया। इस संघर्ष का लाभ लेने बहुत बड़ा दलालतंत्र सामने आता है, मगर उसके खेल चल ही रहे होते कि सैकड़ों वर्षें से प्रवाहित जल का सोता सूख जाता है। पानी के लिए हाहाकार की सी स्थिति है। ऐसे में उस तंत्र से रामदीन जैसा एक दलित अधिकारी ही अपवाद निकलता है जो त्यागपत्र देकर न सिर्फ सुरीधार के लिए बल्कि टिहरी बांध के विरोध में जारी आंदोलन के साथ हो जाता है।
इस उपन्यास की कथा जितनी रोचक और पठनीय है, उतनी ही बहसतलव भी। वरिष्ठ लेखक नौटियाल जी की अद्भुत लेखकीय क्षमता का परिणाम है कि पहाड़ की लोक-कथा से शुरु हुआ ‘स्वर्ग दद्दा ! पाणि, पाणि’ पर्यावरण की चिन्ता को लेकर आज भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास बन जाता है।
इस उपन्यास का आरम्भ सितानू की मार्मिक संघर्ष-कथा से होता है। सितानू एक दलित मेहनतकश था जिसने व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर कठिन श्रम से जल का सोता निकाला। फटक पिठवाण से लाया पत्थर राशकर गाय के मुख के भीतर से गिरता पानी सबको सुलभ करवाया। लेकिन, कालांतर में दलितों के लिए ही वहाँ से पानी लेना मुश्किल हो गया। इस संघर्ष का लाभ लेने बहुत बड़ा दलालतंत्र सामने आता है, मगर उसके खेल चल ही रहे होते कि सैकड़ों वर्षें से प्रवाहित जल का सोता सूख जाता है। पानी के लिए हाहाकार की सी स्थिति है। ऐसे में उस तंत्र से रामदीन जैसा एक दलित अधिकारी ही अपवाद निकलता है जो त्यागपत्र देकर न सिर्फ सुरीधार के लिए बल्कि टिहरी बांध के विरोध में जारी आंदोलन के साथ हो जाता है।
इस उपन्यास की कथा जितनी रोचक और पठनीय है, उतनी ही बहसतलव भी। वरिष्ठ लेखक नौटियाल जी की अद्भुत लेखकीय क्षमता का परिणाम है कि पहाड़ की लोक-कथा से शुरु हुआ ‘स्वर्ग दद्दा ! पाणि, पाणि’ पर्यावरण की चिन्ता को लेकर आज भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास बन जाता है।
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